Thursday 12 July 2012

कौन !

कोई जीता है यहाँ जीने के लिए,
कोई फकत जीने के लिए जीता है,
हार - जीत का होता है  फैसला उस दिन,
जब हार मिलते हैं हार जीतने के बाद !

हर कोई खिलाड़ी है खेलता है बाज़ी यहाँ,
बस यहाँ इंसान ही कम मिलता है,
दुनिया है यारों यह मत भूलो ,
यहाँ सट्टे का बाज़ार गरम रहता है !

तुम यहाँ जियो तो जियो कैसे,
हर तरफ जाल बिछा रहता है,
कभी तुम मछली मगर की ,
तो कभी मगर भंवर में फंसा मिलता है !

चलो काट दें आज जाल के फंद सभी ,
ये मुस्कान जो सय्याद ओढ़े रहता है,
इन अदाओं के ही तो मारे हैं हम सभी,
अपने कातिल को हमराज़ समझ बैठे हैं !


  ..... मुक्ता शर्मा 

Friday 2 September 2011

चेहरा !

ये दर्द का कुहासा हटे तो,
चेहरा तेरा देखूं ज़रा ,
आँखों की नमी सूखे तो ,
तेरी छवि निहारूं  ज़रा !

वैसे तो बंजर पड़ी थी ,
अरसे से मन की ज़मीन ,
याद के बादल छटें तो ,
नयी फसल बोऊँ ज़रा !

ये दर्द का कुहासा हटे तो,
चेहरा तेरा देखूं ज़रा ,

यूँ तो हर बरस बुलाती रहीं ,                                             
पपीहे की पुकार भी ,
मैं ही अनमना रहा ,
डूबा सा, अपने गुमान में !

ये दर्द का कुहासा हटे तो,
चेहरा तेरा देखूं ज़रा ,



कब मिलोगी ?

पूछा ज़िन्दगी ने ,'ख़ुशी' से,
कहो, कैसे आना हुआ ?
आज कहीं और, दिल लगा नहीं ,                             
या, इत्तेफाकन  गुज़रना हुआ ?

अधीर प्रेमी सा, पूछा फिर से,
कभी - कभी मिलोगी ?
या अक्सर  मिलती रहोगी ?
या देश के नेता की तरह ,
चुनाव होते ही , रस्ता  भूलोगी ?

बड़ी शर्मिंदा हुई, कहा, गलती हुई ,
अबकी  बार  न  जाऊँगी ,
नेता  जी  चाहे  आयें  न आयें ,
मैं  भ्रष्टाचार की तरह, 
अपनी धूनी यहीं  जमाऊँगी !

उसी  दिन से दोस्तों -

भ्रष्टाचार ख़ुशी संग रहने लगा ,
आम आदमी फिर से ,
दुःख  के 'भवसागर' में उतर गया,
संवेदनहीन  सरकार से लड़ने , 
जीवन  के अन्न शन पर बैठ गया  !






Thursday 1 September 2011

चाँद

एक घर जो धरती से दूर हो  ,
मगर, हर दिल अज़ीज़ हो ,
न पूनम, न अमावस का हिसाब रहे ,
बस , थके बोझिल से क़दमों को ,हल्का करे , 
चाँद पर ऐसा ही एक घर बने !



Wednesday 31 August 2011

कांटे !

बनो गुलाब का फूल , ख़याल  अच्छा है,
बनो महक गुलशन की, बहुत उम्दा  है !
माली की आहट तो पहचानती है खुशबू भी,
रहो सजग, रख लो कांटे भी कुछ साथ ,
दरिन्दे बढ़ाते हैं अब हाथ, पहन कर दस्ताने !





नया सफ़र !

चार कोस चल कर जीवन के,
जाने क्यूँकर थम गया सफ़र !
अभी अभी तो ज़ाहिर हुए हैं ,
जीवन के खट्टे मीठे अनुभव !


चार कोस चल कर जीवन के,
जाने क्यूँकर थम गया सफ़र !

कभी चांदनी, कभी धूप में,
निखरा संवरा है  मेरा रूप प्रखर ,
मरुस्थल में पनपे हैं  चटकीले,
फूल कैक्टस  के इधर उधर !

चार कोस चल कर जीवन के,
जाने क्यूँकर थम गया सफ़र !


जो होता केवल चलते जाना,
जीने  का केवल मूल अर्थ,
समय, स्वयं में जीवन होता ,
रचती प्राणी क्यूँ कुदरत इतने ,यत्न कर !


चार कोस चल कर जीवन के,
जाने क्यूँकर थम गया सफ़र !


पाकर सन्देश एक बीज से पनपा,
वृक्ष  कैसा ये सुंदर जीवन का,
निरंतर बहे यह स्रोत प्रेम का,
ऐसा मन्त्र  कानों में कहते जाना !


चार कोस चल कर जीवन के,
जाने क्यूँकर थम गया सफ़र !



मुक्त स्वर में गाता है पंछी,
सुनो ये उसका  गीत नया !
नींद से तुम्हें जागता  कोई,
सुनो ये उसका सन्देश नया !

सोये रहे विषयों के आसन पर,
बंद किये प्रेम के द्वार झरोखे ,
दीप ज्ञान के जलाता कोई,
देखो उसका रूप नया !

मुक्त स्वर में गाता है पंछी,
सुनो ये उसका  गीत नया !

तपती रेत में छाया मांगे ,
सागर में दो पग भूमि,
आसमान में जीवन ढूंढे, 
धरती का भटका प्राणी !

मुक्त स्वर में गाता है पंछी,
सुनो ये उसका  गीत नया !

भूख नहीं है दो रोटी की, लेकिन ,
सोने चांदी के टुकड़े मांगे ,
दौड़ रहा मन इसके उसके सबके पीछे,
चलने का भी अभी ज्ञान नहीं !


मुक्त स्वर में गाता है पंछी,
सुनो ये उसका  गीत नया !



सत्ता के गलियारों में ,
रचे रोज प्रपंच नया ,
अधिकारों का होता चीर हरण ,
अधर में भीष्म का असमंजस खड़ा !

मुक्त स्वर में गाता है पंछी,
सुनो ये उसका  गीत नया !

जगो, उठो, जला लो दीप गगन में,
एक सूरज है कम, भर लो आग स्वयं में,
खुद के जीने के पल हैं बहुतेरे,
आज जियो मातृभूमि के लिए ज़रा !

मुक्त स्वर में गाता है पंछी,
सुनो ये उसका  गीत नया !